Tuesday, September 2, 2008

वक्त



वक्त ले उड़ा वो लम्हें हमें पीछे छोड़ के,
सदा ज़िन्दगी की यादें है अब दिल में.
होश तो था ही कहाँ जो संभलते,
कदम थे ही कहाँ ज़मीन पे जो ठहेरते.
निशान रह गए बस बाकि कुछ भी नही,
धूल ही धूल है कोई चमक ही नही.
सुखी ठुकराई पत्तियों की उड़ने की आवाज़ तो है,
सब्ज़ पत्तियों की नमी की जैसे कमी सी है.
छुटा हुआ वक्त हमें खींचता है अपनी तरफ़,
साहिल पे लिखे लम्हों को होटों पे बुलाता है हर हरफ.
पानी का रंग अब तो फीका सा है,
रेत हलकी है और पानी भरी सा है.
रौशनी का इंतज़ार है तो लेकिन,
तेज़ हवा न अ जाए बन के नागिन.
दस लेगी हवा रौशनी को ऐसे,
मानो जलते चिराघ को भुझाते हों जैसे.
तेज़ मंझे पे चलके पहुंचना है पतंग पे,
पीले चाँद को लाना है अब ज़मीन पे.
हूरे बहार को लाना है अब वापस,
गुले गुलज़ार से महकाना है हर आंगन.
फिर तो हम वक्त पे सवार होंगे और उड़ जायेंगे बस,
जैसे मिल गई हो मंजिल हमें और मंजिल को हम.
पानी तो अब तेज़ बहेगा और नदी भी रहेगी खुश,
खुशियों का खुमार होगा और दूर रहेगा दुख.
फिर हम सो जायेंगे लेके सुकून की साँस,
और ज़िन्दगी भर हम देंगे एक दूसरे का साथ.

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